
गर्मी की छुट्टियों में, बारहवीं की परीक्षा के बाद, मेरा मन दोस्तों और इंटरनेट की दुनिया में रमा रहता था। तभी अचानक मोहनगढ़, अपने पैतृक गांव जाने का कार्यक्रम बना। बरसों बाद अपनी दादी मां और चाचाओं से मिलने की उत्सुकता थी। बड़े चाचा जी, जो अब इस दुनिया में नहीं थे, उनके बच्चे – 16 साल का बेटा और 14 साल की बेटी – और छोटे चाचा जी, जो अभी अविवाहित थे, सभी वहीं रहते थे।
गांव पहुंचकर, जेठ की तपती दोपहर में भी अपनों के बीच की खुशी ने सारी थकान मिटा दी। रात को छत पर चारपाई बिछाकर सोने का अनुभव हमेशा खास होता था। मेरे चचेरे भाई नीचे कमरे में टीवी देख रहे थे, और चाची जी की चारपाई मेरी बगल में लगी थी। सफर की थकान ने जल्द ही मुझे गहरी नींद में सुला दिया।

आधी रात को प्यास और गर्मी से मेरी आंख खुली। चाची जी की चारपाई खाली देखकर मैंने सोचा शायद वह पानी लेने गई होंगी। पानी का मटका छत पर बने एक छोटे से कमरे में रखा था। जब मैं वहां पहुंचा तो दरवाजा बंद था, पर नीचे से हल्की रोशनी आ रही थी। हैरानी हुई कि चाची जी दरवाजा बंद करके पानी क्यों पी रही होंगी? मैंने हल्का सा धक्का दिया, पर कुंडी लगी थी। तभी अंदर से किसी के चलने की आवाज आई। डर के मारे मैंने आसपास देखा और तुलसी के चबूतरे के पीछे छिप गया।

कुछ ही मिनटों में दरवाजा धीरे से खुला और चाची जी बाहर निकलीं। उन्होंने आसपास देखा और सीधे तुलसी की क्यारी की तरफ गईं। हल्की चांदनी में मैंने देखा, उन्होंने क्यारी से कुछ उठाया और वापस कमरे में चली गईं। दो मिनट बाद, मैं दबे पांव कमरे के पास पहुंचा। इस बार दरवाजा थोड़ा खुला था, और अंदर से वही हल्की रोशनी आ रही थी। मैंने धीरे से झांका, और जो देखा उसने मेरे होश उड़ा दिए। चाची जी चारपाई पर बैठी हुई थीं…
मेरी कल्पनाओं की दुनिया टूटी जब मैंने महसूस किया कि चाची जी मुझे देख रही हैं। उनके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था और उनकी नजरें मेरे चेहरे पर गड़ी थीं। “कृष्ण, तुम यहां क्या कर रहे हो?” उनकी आवाज सुनकर मैं डर और शर्म से भागकर नीचे कमरे में छिप गया। चाचा जी और खासकर छोटे चाचा जी के गुस्से के डर से मैं कांप रहा था।
अगले दिन नाश्ते के दौरान, हमारी नजरें बार-बार टकरा रही थीं, पर हम दोनों ही झेंप रहे थे। चाचा जी की बातों और चाची जी की गुस्से भरी नजरों ने मेरे दिल में डर बिठा दिया था।
फिर एक दोपहर, जब सब अपने-अपने कमरों में आराम कर रहे थे, मेरे मन में शैतान ने फिर दस्तक दी। मैंने चाची जी के कमरे के दरवाजे पर झांकने की कोशिश की, फिर खिड़की से, और एक छोटे से सुराख से जो देखा, उसने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया। चाची जी अपने मामा के बेटे के साथ…

उस दिन घर से भागकर मैंने शाम तक बाहर घूमकर एक फैसला कर लिया था। अब मुझे चाची जी का डर नहीं था, क्योंकि उनका सच मेरे सामने आ चुका था।
अगले कुछ दिन सामान्य बीते, पर मेरी नजरें हर पल चाची जी पर टिकी रहती थीं। फिर एक दिन, जब चाची जी ने मुझे बाजार से सब्जी लाने के लिए कहा और रसोई के दरवाजे की चाबी लेने को कहा, तो मेरे मन में एक योजना आई। बाजार से लौटकर, घर के अंदर मोटरसाइकिल देखकर मैं चौंक गया। यह चाचा जी की नहीं थी। रसोई से गुजरते हुए, चाची जी के कमरे से आ रही धीमी आवाजें सुनकर मेरा शक और गहरा गया। खिड़की से झांककर जो देखा, उसने मेरे पैरों तले जमीन खिसका दी। अंदर, सोफे पर चाची जी अपने मामा के बेटे के साथ…
उस रात, मैंने घर आकर घंटी बजाई और अपने चचेरे भाई से दरवाजा खुलवाया। अब मुझे चाची जी का कोई डर नहीं था। उनका सारा खेल मैं देख चुका था।
अगले कुछ दिनों तक घर का माहौल सामान्य रहा, लेकिन मेरे अंदर एक अजीब सी बेचैनी थी। एक सुबह, नाश्ते के बाद, जब सब अपने-अपने कामों में लग गए, तो मैंने हिम्मत करके चाची जी के कमरे का दरवाजा खटखटाया। अंदर से कोई जवाब नहीं आया, पर दरवाजा खुला हुआ था। अंदर चाची जी बिस्तर पर बैठी थीं, और मुझे देखते ही उनका चेहरा पीला पड़ गया।
कांपती आवाज में उन्होंने पूछा, “क्या काम है?”
मैं उनके पास बैठकर धीरे से कहा, “मुझे आपसे बात करनी थी।”
चाची जी आगे बढ़कर मेरे घुटने पकड़कर रोने लगीं, “कृष्ण, मुझे माफ कर दो। मुझसे गलती हो गई। भगवान के लिए किसी को मत बताना।”
मैंने उनसे पूछा, “आपने यह क्यों किया?”
वह और रोने लगीं, “मैं भटक गई थी।”
मैंने कहा, “अगर मेरी जगह चाचा जी होते…”
उन्होंने मेरे घुटने पकड़ लिए, “किसी को मत बताना। मैं वादा करती हूं, तुम्हारी बातें राज रखूंगी और तुम मेरी।”
कुछ दिनों बाद, जब मैं अपने कमरे में तेल मालिश कर रहा था, तो दरवाजा खुला रह गया और चाची जी ने मुझे देख लिया। वह तुरंत दरवाजा बंद करके चली गईं। डर के मारे मैंने उनका दरवाजा खटखटाया। थोड़ी आनाकानी के बाद उन्होंने दरवाजा खोला। मैंने उनसे माफी मांगी।

“कृष्ण, मुझे समझ नहीं आता कि तुम्हारे साथ क्या समस्या है,” उन्होंने कहा। “यह सब ठीक नहीं है।”
मैंने डरते हुए कहा, “मैं क्या करूं?”
चाची जी बोलीं, “यह सब छोड़ दो।”
मैंने वादा किया कि मैं दोबारा ऐसी गलती नहीं करूंगा और उनसे किसी को न बताने की विनती की। उन्होंने मान लिया।
इस घटना के कुछ दिन बाद, चाची जी ने मुझे बाजार से सब्जी लाने के लिए पैसे दिए और कहा कि घर की चाबी रसोई के दरवाजे पर लटकी है। बाजार जाते समय रास्ते में पड़ोसी मोहन काका मिले और मुझे मोटरसाइकिल पर बाजार ले गए। हम जल्दी ही लौट आए। घर पहुंचकर, मैंने चाबी से दरवाजा खोला और अंदर गया। आंगन में एक अनजान मोटरसाइकिल खड़ी थी। रसोई से गुजरते हुए चाची जी के कमरे से धीमी आवाजें आ रही थीं। खिड़की से झांककर मैंने जो देखा, वह मेरे लिए एक भयानक सच्चाई थी। चाची जी सोफे पर अपने मामा के बेटे के साथ बैठी थीं, और उनकी नजरें जैसे ही खिड़की पर पड़ीं, उनके चेहरे का रंग उड़ गया। मैं भागकर घर से बाहर चला गया।
उस दिन, मैंने समझ लिया कि रिश्तों की डोर कितनी कमजोर हो सकती है और धोखे का पर्दा कब और कैसे उठ सकता है। चाची जी की गलतियों ने मुझे सिखाया कि विश्वास और ईमानदारी किसी भी रिश्ते की नींव होते हैं, और जब यह टूटते हैं, तो दर्द कितना गहरा होता है। मैंने यह भी सीखा कि कभी-कभी सच्चाई कड़वी होती है, लेकिन उससे मुंह मोड़ना और भी ज्यादा नुकसानदायक हो सकता है।
सीख: इस कहानी से यह सीख मिलती है कि हमें रिश्तों की पवित्रता और मर्यादा का हमेशा ध्यान रखना चाहिए। धोखे और झूठ की नींव पर बने रिश्ते कभी टिक नहीं पाते और अंततः दुख का कारण बनते हैं। हमें दूसरों के विश्वास का सम्मान करना चाहिए और ऐसी किसी भी हरकत से बचना चाहिए जिससे किसी के दिल को ठेस पहुंचे। हर गलती का पश्चाताप संभव है, लेकिन विश्वास को दोबारा जीतना बहुत मुश्किल होता है।